चमत्कारी महाकाली भवाल माता मंदिर जो ग्रहण करती हे ढ़ाई प्याले मदिरा और जहाँ होती हर मनोकामना पूरी

महाकाली भवाल माता : राजस्थान के नागौर जिले में मेड़ता सिटी से लगभग 20-22 K.m. दक्षिण में स्तिथ एक गांव हे भवाल। यहाँ पर विक्रम संवत् की  21वीं शताब्दी के लगभग निर्मित महाकाली का एक प्राचीन मंदिर हे।  यहाँ स्तिथ शिलालेख से पता चलता हे की विक्रम संवत् 1380 की माघ बदी …

महाकाली भवाल माता :

राजस्थान के नागौर जिले में मेड़ता सिटी से लगभग 20-22 K.m. दक्षिण में स्तिथ एक गांव हे भवाल। यहाँ पर विक्रम संवत् की  21वीं शताब्दी के लगभग निर्मित महाकाली का एक प्राचीन मंदिर हे।

 यहाँ स्तिथ शिलालेख से पता चलता हे की विक्रम संवत् 1380 की माघ बदी एकदशी को  इस मंदिर का निर्माण हुवा था।  महाकाली भवाल माता के नाम पर ही इस कस्बे का पड़ा।

लोगो की परंपरा के अनुसार मदिरा का भोग चढ़ाया जाता हे।  जिस भक्त की मन्नत पूरी होती हे माता उसी का भोग ग्रहण करती हे ऐसी मान्यता हे। 

Bhawal

माता इतनी चमत्कारी है कि वह अपने प्रत्येक भक्त की मनोकामना पूर्ण करती है। इस का प्रत्यक्ष दर्शन किसी भी दिन, किसी भी समय मंदिर में जाकर अनुभव कर सकते हैं।

रुद्राणी को मदिरा  चढ़ाने वालों की पंक्ति लगी रहती है। कोई भी भक्त देवी रुद्राणी से मन्नत मांगते हैं और उनकी मनोकामना की पूर्ति होने पर भक्त मदिरा चढाने आते हैं।

देवी प्रत्येक मदिरा की बोतल में से ढाई प्याले मदिरा का प्रत्यक्ष पान करती है। देवी की प्रतिमा के सम्मुख दो नंगी तलवारें सज्जित है।

माँ  को मदिरा का प्रसाद चढ़ाने के लिए पुजारी चांदी के प्याले में मदिरा लेता है और उनके होठों से लगाता है। इस दौरान वह प्याले की ओर नहीं देखता। नीचे माता की ज्योति जलती रहती है।

फिर वह ज्योति पर प्याले को उल्टा कर देता है। अगर माता ने मदिरा का प्रसाद स्वीकार कर लिया है तो उसकी एक बूंद भी नीचे नहीं गिरती। इस प्रकार माता को चांदी के ढाई प्याले मदिरा के चढ़ाए जाते हैं और वे उसे ग्रहण करती हैं।

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मंदिर निर्माण की दन्त कथा (भंवाल माता ) :

मंदिर के इतिहास के बारे में कहा जाता है कि भंवाल मां प्राचीन समय में भंवालगढ़ गांव (जिला नागौर) में एक खेजड़ी के पेड़ के नीचे पृथ्वी से स्वयं प्रकट हुईं। मां ने भक्तों को संकेत दिया कि वे दोनों बहनें कालका व ब्रह्माणी के रूप में आई हैं लेकिन उनका मूल स्वरूप एक ही है। 

इस मंदिर के बारे में एक अन्य कथा भी प्रचलित है। जिसके अनुसार इस मंदिर का निर्माण संवत 1119 में डाकुओं ने करवाया था। ऐसी दंतकथा है कि डाकू माता की शरण में आये और माता ने उनकी रक्षा की।

इसलिए डाकुओं ने इस मंदिर का निर्माण करवाया। इस कथा के अनुसार वि.सं. 1050 के आसपास डाकुओं के एक दल को राजा की फौज ने घेर लिया था। मृत्यु को निकट देख उन्होंने देवी मां को याद किया। 

मां ने अपने प्रताप से डाकुओं को भेड़-बकरी के झुंड में बदल दिया। इस प्रकार डाकुओं के प्राण बच गए। बाद में डाकुओं ने विचार किया कि मां को प्रसाद चढ़ाना चाहिए लेकिन उनके पास कुछ नहीं था।

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तभी उनमें से किसी ने कहा कि मां तो प्रेम से भी प्रसन्न हो जाती हैं। इसलिए प्रेम सहित मां को कुछ भी चढ़ाओ, वे स्वीकार कर लेंगी।

डाकुओं के पास थोड़ी-सी मदिरा थी। उन्होंने मां के होठों से वह प्याला लगा दिया और वह खाली हो गया। डाकुओं को आश्चर्य हुआ। उन्होंने दूसरा प्याला लगाया और वह भी खाली हो गया।

उत्सुकतावश उन्होंने तीसरा प्याला लगाया तो वह आधा ही खाली हुआ। आधा प्याला मां ने भैरों के लिए छोड़ दिया था। इसके बाद डाकुओं ने डकैती करनी बंद कर दी। 

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