जय माँ भवानी हुकुम, आज हम अपने लेख में राजपुताना इतिहास के बिषय में चर्चा कर रहे हैं जिसके अंतर्गत आज हम राठौड़ वंश के विषय में संशिप्त चर्चा करेंगे । राठौड़ वंश राजपूत वंश की ही एक शाखा है राठौड़ वंश के लोग समस्त भारत वर्ष में पाये जाते हैं।
जिनके बारे में हम आज आप को बताएंगे।राठौड़ वंश का इतिहास काफी पुराना एवं स्वर्णिम रहा है जिसके बारे में जानना आपके लिए काफी जरूरी है। आज हम इसके साथ साथ राठौङ वंश के गोत्र कुल देवी आदि के विषय में विस्तार से बात करेंगे। तो चलिये अब जानते हैं राठौड़ समाज के बारे में:-
राठौड़ वंश का संस्थापक राव सीहा को माना जाता है जिन्होंने सर्वप्रथम पाली के निकट अपना छोटा सा साम्राज्य स्थापित किया | राजस्थान में राठौड़ वंश अलग अलग स्थानों पर अलग अलग तरीके से पनपा है उसके बारे में हम आपको विस्तार से बताते है |
जोधपुर के राठौड़
राव सीहा के वंशज वीरमदेव के पुत्र राव चुडा जोधपुर के राठौड़ वंश के प्रथम प्रतापी शाषक थे जिन्होंने मंडोर दुर्ग को मांडू के सूबेदार से जीतकर अपनी राजधानी बनाया था | आइये अब आपको जोधपुर के राठौड़ वंश के प्रत्येक शासक के बारे में विस्तार से बताते है |
- राव सीहा (1250-1273 ईस्वी) – राठौड़ राजवंश के संस्थापक
- राव आस्थान जी (1273-1292)
- राव धुह्ड जी (1292-1309)
- राव रायपाल जी (1309-1313)
- राव कनपाल जी (1313-1328)
- राव जालणसी जी (1323-1328)
- राव छाडा जी (1328-1344)
- राव तीडा जी (1344-1357)
- राव सलखा जी (1357-1374)
- राव वीरम जी (1374-1383)
- राव चुंडा जी (1394-1423) – मंडोर पर राठौड़ राज्य की स्थापना
- राव रिडमल जी (1427-1438)
- राव काना जी (1423-1424)
- राव सता जी (1424-1427)
- राव जोधा जी (1453-1489)- जोधपुर के संस्थापक , जिन्होंने 1459 में चिड़िया टुंक पहाडी पर मेहरानगढ़ दुर्ग का निर्माण करवाया | जोधा के पुत्र राव बीका (1485-1504) ने बीकानेर में राठौड़ वंश की नींव डाली और बीकानेर राज्य की स्थापना की |
- राव सातल जी (1489-1492) – अफगान हमलावरों से 140 औरतो को बचाते समय राव सातल घायल हो गये थे जिससे उनकी मृत्यु हो गयी |
- राव सुजा जी (1492-1515)
- राव गंगा जी (1515-1532) – भारत के सुल्तानों के विरुद्ध हुए राणा सांगा के आक्रमणों में उनका सहयोग दिया |
राव मालदेव जी (1532-1562) –
5 जून 1531 को राव मालदेव जब जोधपुर की गद्दी पर बैठे तब दिल्ली में हुमायूँ का शाषन था | मालदेव का विवाह जैसलमेर के शाषक लूणकरण की पुरी उमा देवी से हुआ जिसे इतिहास में रूठी राणी के नाम से जाना जाता है | मालदेव ने जेतसी को हराकर बीकानेर पर 1541 में अधिकार किया | गिरी सुमेल नामक स्थान पर मालदेव और शेरशाह सुरी के बीच भयंकर युद्ध हुआ , जिसमे शेरशाह सुरी छल-कपट से विजयी हुआ | इतिहास में ये युद्ध गिरी-सुमेल युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है | इस युद्ध में मालदेव के वीर सेनानायक जेता और कुंपा वीरगति को प्राप्त हुए |
राव चन्द्रसेन (1562-1581) –
मालदेव की मृत्य के बाद जब उनका पुत्र चन्द्रसेन राजगद्दी पर बैठा तो मालदेव का ज्येष्ठ पुत्र उदयसिंह नाराज होकर अकबर के पास चला गया | अकबर ने हुसैनकुली के नेतृत्व में शाही सेना भेजकर जोधपुर पर अधिकार कर लिया और चन्द्रसेन भाद्राजून चला गया | अकबर ने 1570 में नागौर में “नागौर दरबार” आयोजित किया जिसमे जैसलमेर नरेश रावल हरराय , बीकानेर नरेश राव कल्याणमल एवं उनके पुत्र रायसिंह एवं चन्द्रसेन के भाई उद्यिसंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली | रायसिंह को जोधपुर का शाषन स्म्भ्लाया | राव चन्द्रसेन मुगलों की अधीनता स्वीकार नही करते हुए अंतिम समय तक संघर्ष करता रहा , इस कारण उन्हें “मारवाड़ का महाराणा प्रताप” एवं “मारवाड़ का भुला भटका शासक” कहते है |
- राव रायसिंह जी (1582-1583)
- मोटा राजा उदय सिंह जी (1583-1595) -राव मालदेव के पुत्र एवं चद्रसेन के बड़े भ्राता उदयसिंह 4 अगस्त 1583 में जोधपुर के शाषक बने | उदयसिंह मारवाड़ के प्रथम शाषक थे जिन्होंने मुगलों की अधीनता स्वीकार कर अपनी पुत्री मानबाई (जगत गुसांई) का विवाह शहजादे सलीम (जहांगीर) से किया | उदयसिंह की मृत्यु 1595 में लाहौर में हुयी |
- सवाई राजा सुरसिंह जी (1595-1619) – उदयसिंह के पुत्र शुरसिंह ने 1595 में जोधपुर का शाषन सम्भाला | अकबर ने इन्हें “सवाई राजा” की उपाधि दी थी |
- महाराजा गजसिंह जी (1619-1638) – शुरसिंह के पुत्र गजसिंह 8 अक्टूबर 1619 में जोधपुर के शाषक बने | जहांगीर ने उन्हें दलमंथन की उपाधि दी थी एवं इनके घोड़ो को “शाही दाग” से मुक्त किया |
महाराज जसवंत सिंह जी प्रथम (1638-1678) –
गजसिंह के पुत्र जसवंत सिंह का 1638 में आगरा में राजतिलक किया गया | शाहजहा ने इन्हें “महाराजा” की उपाधि दी | शाहजहा के पुत्रो के उत्तराधिकारी संघर्ष में जसवंत सिंह ने दारा शिकोह के पक्ष में उज्जैन में धरमत के युद्ध में शाही सेना का नेतृत्व किया जिसमे औरंगजेब विजयी रहा | पुन: दौराई के युद्ध में औरंगजेब ने दारा शिकोह को परास्त किया | औरंगजेब ने जसवंत सिंह को सर्वप्रथम दक्षिण अभियान तत्पश्चात काबुल अभियान पर भेजा , जहां उनकी मृत्यु हो गयी | जसवंत सिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था कि आज कुफ्र का दरवाजा टूट गया |
महाराजा अजीत सिंह जी (1707-1724) –
जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद उसकी गर्भवती रानी ने राजकुमार अजीतसिंह को जन्म दिया | औरंगजेब ने उन्हें दिल्ली बुलाया | औरंगजेब इनकी हत्या करना चाहता था लेकिन दुर्गादास ने अन्य सरदारों के साथ राजकुमार को सुरक्षित निकालकर कालन्द्री (सिरोही) में इनकी परवरिश की तथा अजीत सिंह को जोधपुर की गद्दी पर बिठाया | अजीतिसंह ने बहकावे में आकर दुर्गादास को राज्य से निष्काषित कर दिया तब वे मेवाड़ चले गये | बाद में दुर्गादास की मृत्यु उज्जैन में हुयी जहा उनकी समाधि छिप्रा नदी के तट पर बनी हुयी है | महाराजा अजीत सिंह की हत्या उनके पुत्र बख्स सिंह ने 23 जून 1724 में कर दी |
- महाराजा अभय सिंह जी (1724-1749) -अजीत सिंह के उत्तराधिकारी अभयसिंह हुए जिनके शाषनकाल में खेजडली गाँव में अमृता देवी के नेतृत्व में वृक्षों की रक्षा हेतु 363 लोगो ने बलिदान दिया |
- महाराजा राम सिंह जी (1949-1951)
- महाराजा बखत सिंह जी (1751-1752)
- महाराजा विजय सिंह जी (1752-1793)
- महाराजा भीम सिंह जी (1793-1803)
महाराजा मानसिंह (1803-1843) –
जोधपुर के सिंहासन पर उत्तराधिकारी संघर्ष के पश्चात भीमसिंह को पदच्युत करके महाराजा मानसिंह ने कब्जा जमाया | अपने संघर्ष काल में जालोर दुर्ग में मारवाड़ की सेना से घिरे मानसिंह को नाथ सम्प्रदाय के आयस देवनाथ ने जोधपुर के शाषक बनने की भविष्यवाणी कर आशीर्वाद दिया | मानसिंह ने अपने जीवनकाल में ही 1817 में अपने पुत्र छत्तरसिंह को गद्दी सौंप दी थी लेकिन शीघ ही छतर सिंह की मृत्यु हो गयी तत्पचात महाराजा मानसिंह ने 6 जनवरी 1818 को ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली|
- महाराजा तख़्त सिंह जी (1843-1873)
- महाराजा जसंवत सिंह जी द्वितीय (1873-1895)
- महाराजा सरदार सिंह जी (1895-1911) -ब्रिटिश इंडियन आर्मी में कर्नल
- महाराजा सुमेर सिंह जी (1911-1918) -ब्रिटिश इंडियन आर्मी में कर्नल
- महाराजा उम्मेद सिंह जी (1918-1947) – ब्रिटिश इंडियन आर्मी में लेफ्टीनेंट जनरल
- महाराजा हनवंत सिंह जी (1947-1952) – मारवाड़ के शासक
- महाराजा गजसिंह जी द्वितीय – वर्तमान में
बीकानेर के राठौड़
बीकानेर के राठौड़ वंश की नींव राव जोधा के पुत्र राव बीका ने 1465 में रखी तथा 1468 में बीकानेर नगर बसाया | आइये बीकानेर के राठौड़ वंश के प्रमुख शासको की बात करते है |
- राव बीका (1465-1504)- बीकानेर के संस्थापक
- राव नरसी (1504-1505) – राव बीका के पुत्र
- राव लूणकरण (1504-1526) – 1504 में राव नरा की मृत्यु के पश्चात राव लुणकरण बीकानेर के शासक बने जिन्होंने जैसलमेर के नरेश राव जैतसी को हराया और नारनोल पर आक्रमण किया | इन्हें “कलियुग का कर्ण” के नाम से विभूषित किया गया|
राव जैतसी (1526-1542) – इनके शासनकाल में बाबर के पुत्र एवं लाहौर के शासक कामरान ने 1534 में भटनेर पर अधिकार करने के पश्चात बीकानेर पर आक्रमण किया तथा 26 अक्टूबर 1534 में राव जैतसी को हराकर बीकानेर पर कब्जा किया लेकिन राव जैतसी ने पुन: बीकानेर पर अधिकार कर लिया | राव मालदेव ने “पहोबा के युद्ध” में राव जैतसी को हराकर बीकानेर पर अधिकार किया , इस युद्ध में राव जैतसी वीरगति को प्राप्त हुआ|
- राव कल्याणमल (1542-1573) – राव कल्याणमल ने गिरी सुमेल के युद्ध में मालदेव के विरुद्ध शेरशाह सुरी की सहायता की थी जिससे प्रसन्न होकर शेरशाह सुरी ने बीकानेर के शासन राव कल्याणमल को सौंप दिया | 1570 में नागौर दरबार में राव कल्याणमल एवं उनके पुत्र रायसिंह ने उपस्थित होकर अकबर की अधीनता स्वीकार की | राव कल्याणमल के पुत्र पृथ्वीराज राठौड़ अकबर के नवरत्नों में से एक थे जिन्होंने प्रसिद्ध ग्रन्थ बेलि “क्रिसन रुक्मणी री ” की रचना की |
- महाराजा रायसिंह (1573-1612) – अकबर ने 1572 में रायसिंह को जोधपुर का प्रशासक नियुक्त किया जो अपने पिता की मृत्यु के पश्चात 1574 में बीकानेर की गद्दी पर बैठे | रायसिंह ने शहजादे सलीम को बादशाह बनने में सहायता की जिससे प्रसन्न होकर जहांगीर ने रायसिंह को 5000 मनसब प्रदान कर दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया | वही बुरहानपुर में 1612 में उसका निधन हो गया | मुंशी देवीप्रसाद ने महाराजा रायिसंह को “राजपूताने का कर्ण” कहा है |
- राव दलपत सिंह जी
- राव सुरसिंहजी
- कर्ण सिंह (1631-1669) – बीकानेर के सिंहांसन पर बैठे महाराजा कर्ण सिंह को अन्य राजपूत शासको ने “जागलन्धर बादशाह” की उपाधि दी | देशनोक में करणी माता मन्दिर का निर्माण करवाया | कर्णसिंह ने शाहजहा और औरंगजेब दो मुगल बादशाहों की सेवा की |
महाराजा अनूप सिंह (1669-1698) – औरंगजेब ने इन्हें “महाराजा” एवं “माहीभरातिव” की उपाधियाँ प्रदान की | अनूपसिंह विद्वान और संगीतप्रेमे थी इनके दरबारी भावभट्ट ने अनूप संगीत रत्नाकर , संगीत अनूपाकुंश एवं अनूप संगीतविलास की रचना की |
- महाराजा सरूपसिंह जी (1698-1700)
- महाराजा सुजान सिंह जी (1700-1736)
- महाराजा जोरावर सिंह जी (1736-1746)
- महाराजा गजसिंह जी (1746-1787)
- महाराजा राजसिंह जी (1787)
- महाराजा प्रताप सिंह जी (1787)
- महाराजा सुरत सिंह जी (1787-1828)
- महाराजा रतन सिंह जी (1828-1851)
- महाराजा सरदार सिंह जी (1851-1872)
- महाराजा डूंगरसिंह जी (1872-1887)
- महाराजा गंगासिंह जी (1887-1943)
- महाराजा सार्दुल सिंह जी (1943-1950)
- महाराजा करणीसिंह जी (1950-1988)
महाराजा नरेंद्रसिंह जी (1988-वर्तमान)